*आवारा कलम से*दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार
अपने --अपने आदिवासी , हर दल के
प्राणेश्वर बताये गये अपने आदिवासी । सुधार की पगडंडी से राजपथ पर खींच कर लाये गये आदिवासी फिर परिष्कृत समाज द्वारा टोला-मजरा में धकियाये गये अपने आदिवासी ।
गगन चुम्बी इमारतों में चाॅद--तारे बताये गये आदिवासी , इधर गांव की गलियों में कु-पोषित पइयां-पइयां चलते मिल गये अपने बाल गोपाल आदिवासी ।
साक्षरता का शंखनाद सुना , वैगा विकास प्राधिकरण का सपना देखा , मैकल पर्वत की नंगी पहाडियों पर कोदो-कुटकी, और मकई की खुराक से क्षुधा. शांत करते अपने आदिवासी । कुल देवी देवताओं के पांव पखार कर झांड-फूंक से कोरोना को मात देते अपने आदिवासी ।
कई-कई सरकारों का बने बोट बैंक, हर बार ठगे जाते, अपने आदिवासी । बन गये किस्मत से भाई बन्धु जो सांसद-विधायक फिर वो भी पलट कर नहीं देखते अपने आदिवासी ।
कचनार, हरसिंगार, और गुलर के फूल हो गये गुलवकावली से अपने आदिवासी । देश की आजादी के लिये शहादत दे चुके शहीदों की तारीखों पर , फिर अलग-अलग मंचों से दुलारे जाते अपने आदिवासी । न जाने किसकी लगी इनको नजर कि गुटों और दलों में बट गये-----'
अपने आदिवासी ।
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