*आवारा कलम से* दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार
एक सामान्य बात है कि जब भी लोग आग से जलते थे तो अस्पताल दौड़ते थे अब अस्पताल जल रहे हैं तो लोग कहां जाएं ?
यह प्रश्न चिन्ह व्यवस्था पर लगता है कि हम भले ही चांद पर और मंगल पर पहुंच गए हों लेकिन जरूरतमंदों के लिए सुविधाएं जुटा पाने में खासकर स्वास्थ्य सुविधाएं जुटा पाने में बहुत पीछे हैं ।
सहज भाव से कहना आसान है कि पिछले 70 सालों में कुछ नहीं हुआ तो हम भी कुछ नहीं करेंगे । ऐसे तर्क बहुत बेमानी हैं, क्योंकि किसी अस्पताल में आग लगे और दर्जन भर से ज्यादा बच्चे अकस्मात ही काल के गाल में समा जाएं, उनके परिजनों पर क्या बीती होगी ?
यह कोई संवेदनशील व्यक्ति ही महसूस कर सकता है । हमारे प्रदेश के मुखिया जो सारे बच्चों को भांजे भांजियों के स्वरूप में देखते हैं उन पर क्या बीती होगी लोकोचार में हंसना बोलना खाना पीना पड़ता जरूर है लेकिन उनका मन तड़प गया होगा । वह भी राजधानी के हृदय स्थल पर इस हादसे का होना बहुत बड़ी बात है । आम जनता की ओर से सभी का यही आग्रह प्रदेश के मुख्यमंत्री से है कि वह अस्पतालों की व्यवस्था पर सकारात्मक कड़ी निगरानी रखें, क्योंकि कोविड-19 के खौफ से उबरे अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगाने की व्यवस्थाएं की गई अस्पतालों का कायाकल्प किया गया फिर भी यह खामियां कैसे छूट गई की ऑक्सीजन कि पाइपलाइन ही अग्निकांड की जनक बन जाये ?
राजधानी से हटकर संभाग , जिला और ब्लॉक स्तर के अस्पतालों पर नजर डाली जाए तो स्टाफ की कमी के बावजूद व्यवस्थागत खामियां देखने को बहुत मिलती है । इस घटना के बाद काश ! व्यवस्थाएं चाक-चौबंद हो जाए तो ऐसी घटनाओं की पुनरावृति पर अंकुश लगाया जा सकता है ।
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