*आवारा कलम से*दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार
नए अधिकारियों के साथ पुराने मुद्दे पर होने वाली गंभीर चर्चा तथा परिचर्चा का अपना एक अलग मजा है । शायद इस शहर में आधुनिक और विशाल सभागार जनप्रतिनिधियों की बढती संख्या को देख कर बनवाया गया होगा क्यों कि इस शहर की जनसंख्या इतनी तेजी से नहीं बढती, जितनी तेजी से जनप्रतिनिधि बढ रहे हैं । जनसमस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते करते कई बार जनप्रतिनिधि ही ऐसे उलझ गये कि समस्या छोटी पड गई और उलझन बडी हो गई ।
कहीं पढा था कि अभिनेत्री रेखा के घर में आग लगी । आग पर दो घन्टे में काबू पा लिया गया मगर आग बुझाने गई भीड पर काबू पाने में पुलिस को दो दिन कम पड गये ।
नए पुराने सभी मार्गों पर संकीर्णता से सभी लोग परेशान है मगर हैरानी की बात यही है कि कौन सी सडक किस विभाग की है इसकी अधिकृत जानकारी उनके पास भी नहीं है जिन्होने यह बैठक आहूत की है ।
मजेदार बात यह भी है कि परेशानी से सहमत सब होंगे लेकिन अतिक्रमण हटाने का समर्थन कोई नही करेगा क्यों कि कोरोना संकट से त्रस्त व्यापारी के लिये यह पूजा-पर्व किसी सुनहरे अवसर से कम नहीं है । यह अलग बात है कि वे इन सडकों पर ऐसे विराजमान हैं, जैसे सरकारी योजनायें, दिखेंगी ज्यादा
मिलेंगी कम । शहडोल में कुपोषण विराजमान है और सु-पोषण लापता है । अगर इसी बात को ऐसा कहें कि नागरिक ही मानसिक रूप से कुपोषित हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । अधिकारियों का क्या आज इस डाल पर, कल उस डाल पर ।
शहर की गलियां तंग होने से परेशानियां यही के लोगों को ज्यादा उठानी पड़ती हैं । मगर यह बात सहजता से गले नहीं उतरती ।
नगरपालिका को यह नजर नहीं आता कि जब दुकानदार सडक के पचासा पर पसरा है तो उसको दुकान क्यों देना?
अगर दुकान देना है तो सडक पर क्यों पसरना ?
सडक के किनारे खासकर शंकर टाकीज के पास , कमिश्नर आवास से हनुमान मंदिर चौक तक के पहुंच मार्ग पर, इंदिरा चौक से बसस्टैण्ड तक के मार्ग पर कबाड गाडियां खडीं है । वाईदवे अगर इन्हे
विश्व धरोहर का दर्जा न मिला हो तो पालिका इन्हे हटवा कर मार्गों की
संकीर्णता समाप्त कर यातायात को सुगम बना सकती है , मगर बैकिंग
हिस्ट्री बतला रही है कि जब तक कमिश्नर आदेशित न करेंगे, पालिका कुछ भी नहीं करेगी । निर्वाचित परिषद एक तरफ और बड्डे साहेब का आदेश एक तरफ ।
यातायात में बाधक जो
बिजली के खम्भे है वो कहां हटेंगे ? पिछले तीन दशकों का तो मै साक्षी हूं ,आगे भी रहूंगा
बिना पार्किंग स्थल के यह खूबसूरत शहर यातायात की सुगमता के लिये छटपटा रहा है । नालियों का प्रभार भी खुरदुरी सडकें सम्हाल रहीं है और गौ-वंश की आश्रयदाता भी बनीं है
साइकिल और साइकिल रिक्शा से उन्नति कर यह शहर आटो टेम्पो के नाज नखरे देख रहा है ।
हां ! यह खूबी अगर सामने नहीं रखी तो अपने साथ न्याय करने से वंचित रह जाऊंगा । इस शहर के आटो-रिक्शा शहर में तो चल रहे है मगर सत्य यह भी है कि इन्हे जिले भर में चलाया जा रहा है ।
मिट्टी तेल से चलने वाला
आटो, टोलटैक्स भी बचाता है ।बस मालिक भले ही इन्हे कोसते होंगे मगर ये बेचारे बस से यात्राभाडा भी कम यात्राभाडे का पैसा ले क जनप्रतिनिधियों से छूटी जनसेवा को पूरा कर रहे है । सु-व्यवस्थित यातायात के लिये
लोक निर्माण, विद्युत विभाग, पालिका, नजूल, और पुलिस की एक समन्वय समिति जब तक नहीं बनती, तब तक सब फिजूल है ।
शहरी सडकों का एक विभागवार नक्शा समयोचित रहेगा । कम से कम सडकों के मेन्टिनेंस वर्क के मुद्दे पर टाला-मटूली तो खत्म होगी । मीटिंग में यदि सडक को सडक रखने का संकल्प क्रियान्वित कराने का बीड़ा उठा लिया गया न , तो समझो समस्या खत्म ।मगर यह काम नहीं होगा । किसी मीटिंग में काम की बात हो जाये तो अगली मीटिंग का तो नम्बर ही नहीं आयेगा ?
0 Comments