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उसूल पड़े हैं निभाने के लिए

 *आवारा कलम से* दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार 


           हम आए हैं तेरे शहर में मुसाफिर की तरह , सजी हैं दुकानें

सडकों पर कबाडी की तरह । पहन रखे है सभी ने चड्ढे , अब न डरायेंगे 

सडकों के गड्ढे  ।

  वाहनों के अंदाज और खडे करने के सलीके,

कहाॅ से सीखे होंगे, न जाने चलाना "पी" के 

हुनर को करते सलाम

किसी वफादार की तरह

हम आये तेरे शहर में किसी मुसाफिर की तरह

   आइना है वो जो प्रभारी है , यातायात का

रोना हम सब पर भारी है

मोबाइल की ऐंठन में डूबी रहती है । कानून की खिड़की बस खुली रहती है । 

  न ताकीद, न हिदायत न चालान।वजीरेआला की तरह सवारी निकलती है उसकी ।

 व्यवस्था के हुक्मरान भी रहते उससे जुदा-जुदा ।  वो भी रहती खुद में गुमशुदा की तरह ।

हम आये हे तेरे शहर में मुसाफिर की तरह ।

   हर शाम चुभतीं है ,

अनगिनत सुईयां ।

टकराने पर बे-हिचक

 निकलती ऊइयां ।

किसे दोष दें , किसे बतायें फरियादी की तरह

हम तेरे शहर में आये है मुसाफिर की तरह ।

   उमर का तकाजा है

या बे फरमानी  है ।

प्रभारी यातायात की यही कहानी है ।

ख्यालों से बाहर निकल सके तो निकल कर देखे

ऊसूल पडे है कितने,

निभाने के लिये ।

हम आये है, तेरे शहर में मुसाफिर की तरह

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