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समाज की मान्यताएं

 *क्या इच्छाएं अनंत हैं?* दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार


आइए आज एक प्रयोग करके देखें, बहुधा लोग कहते हैं की इच्छाएं अनंत होती हैं, तो क्यों ना हम आज उन्हें जान ले, एक पेन कॉपी लेकर बैठ जाइए और अब अपनी इच्छाओं को लिखना शुरू कर दीजिए,

 इच्छाएं अनंत होती है तो क्या अनंत पेन कागज साथ लेकर बैठना होगा ?

अरे यह क्या हुआ हम तो एक पेज भी नहीं भर पाए!

तो क्या यह कथन सिर्फ मान्यताओं के कारण था, जिसे हमने बिना जांचे परखे ही मान लिया,

वस्तुतः जीवन में ऐसी बहुत सारी मान्यताएं हैं जिन्हें हमने बिना खुद में जांच पड़ताल के ही मान लिया है, तात्पर्य यही है कि मानने के पहले जानना जरूरी है 

*जानें बिनु ना होइ परतीती,*

*बिनु परतीति  होइ नहीं प्रीती*

जब तक जानेंगे नहीं तब तक विश्वास नहीं होगा और जब तक विश्वास नहीं होगा तब तक प्रेम नहीं होगा,

यथार्थत: जीवन में हमने बहुत सारी मान्यताओं को बिना खुद में जांचे परखे मान लिया है

और फिर यही मान्यताएं हमारे सुख और समृद्धि की निरंतरता में बाधक बन कर हमें दरिद्रता का एहसास करा देती हैं

उदाहरण के तौर पर

*मान्यता:समाज में पैसे वाले की इज्जत होती है*

*मान्यता: समाज में इज्जत के लिए कार होना जरूरी है*

इस तरह की अनेकों मान्यताएं जिन्हें हम खुद में जांचे परखे बिना ही स्वीकार कर लेते हैं 

अब समस्या तब आती है जब हम एक कार खरीद कर लाते हैं और तभी हमारा कोई मित्र  कहता है इतना पैसा खर्च किया था कुछ और खर्च कर बड़ी कार ले लेते, पेट्रोल की जगह डीजल ले लेते, डीजल की जगह इलेक्ट्रिक ले लेते, सफेद की जगह काली ले लेते आदि आदि

*अब हमारा कार लेने की समृद्धि का भाव दरिद्रता के भाव में बदल गया*

वस्तुतः हमारी खुद की जांच पड़ताल में हमारी सहज स्वीकृति मात्र इतनी है कि हमें अपने परिवार के सुविधा पूर्वक आवागमन हेतु एक कार की जरूरत है भी अथवा नहीं,

 उधर मान्यता यह है कि कार वाला बड़ा होता है

संवेदना यह प्राप्त हो रही है की डीजल ठीक है, इलेक्ट्रिक ठीक है, काला रंग ठीक है, बड़ी गाड़ी ठीक है,

मान्यता और संवेदना बाहर से आ रही है जबकि सहज स्वीकृति हमारे अंदर से 

अब हमें यह खुद तय करना है कि मान्यता और संवेदना के आधार पर चलें या खुद की समझ के अनुसार

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