*आवारा कलम से* दिनेश अग्रवाल वरिष्ठ पत्रकार
शहडोल l शुरू में ऐसा एहसास होता था कि प्रशासनिक अधिकारियों में तरलता का अभाव रहता है । वे कठोर होते है और सबसे ज्यादा नम्रता नेताओं में समाहित होती है ।
धीरे--धीरे देश का लोकतंत्र जैसे परिपक्व होता जा रहा है, वैसे ही वैसे प्रशासनिक तरलता सामाजिक रूप से प्रकट होने लगी है ।
अपने यहां इसका सीधा प्रमाण है "नगर सफाई अभियान" ।
अगर यह अभियान ना चलता तो हमें इस बात का एहसास ही ना होता कि प्रशासनिक सेवा के शीर्षस्थ अधिकारी भी जनता के हित में इतनी गहराई से सोचते और समझते हैं कि बरसात के आने के पहले नालियों की, नालों की सफाई हो जानी चाहिए गंदगी के ढेर हट जाने चाहिए ताकि संक्रामक रोगों से जनता दूर रहे हम तो सोचा करते थे कि जनता के द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का यह दायित्व है कि वह जनता के दु:ख--दर्द में आगे बढ़ कर खड़े हों । इस अभियान ने साबित कर दिया कि अगर निर्वाचित जनप्रतिनिधि शुरू से अपने दायित्व का निर्वहन करते तो प्रशासनिक अधिकारियों को कम से कम इस काम के लिए अपना समय खर्च ना करना पड़ता , फिर भी आज सारे निर्वाचित पार्षद टीम बनाकर जन सेवा में जुट गए भले ही प्रेरणा प्रशासन की हो लेकिन कहते हैं कि *जब जागे तब सवेरा* ।
कहने की बातें हैं कि जनप्रतिनिधियों के पास कोई काम नहीं होता जबकि वास्तविकता यह है कि यह कभी फुर्सत में नहीं रहते, घर के लोग भी परेशान होते हैं कि जब इन्हे फुर्सत में होना चाहिए ,तब भी यह दूसरों के बारे में सोचते हैं ।
काश! इन्हे अपने बारे में भी सोचने की फुर्सत मिलती, पता नहीं ऐसा समय कब आएगा । यह सत्य है कि किसी प्रशासनिक अधिकारी को इस क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ना फिर भी उनकी सेवा भावना जीवित नदी की भांति प्रवाहित है और जिन्हें चुनाव लड़ना है वे आज दिशानिर्देशों के मोहताज हो चुके है । संगठन का कोई मुखिया जब निर्देश देता है तब इनमें उत्साह का संचार होता है। वरना
इनका उत्साह विश्राम में पड़ा रहता है । नगर के कई जनप्रतिनिधि सचमुच में सक्रिय हैं । अपने वार्ड के लोगों का ध्यान रखते है । राशन कार्ड से लेकर आवास योजना, पेंशन और न जाने क्या-क्या योजनाओं का लाभ दिलाते हैं । उन का सिक्का तो ऐसा है कि वह बगल वाले वार्ड से भी चुनाव लड़ लें तो जीत उनके कदमों में होती है। इसी के ठीक विपरीत कुछ ऐसे जनप्रतिनिधि हैं जो निर्माण कार्य में रुचि रखते हैं, उनका रुझान अर्थ तंत्र की तरफ होता है, जनतंत्र के प्रति वे उदासीन रहते हैं। हो सकता है प्रशासनिक तजुर्बे ने कुछ खासियत देखी होगी तब कहीं जाकर नगर सफाई अभियान का शंखनाद किया अथवा ऐसा भी हो सकता है कि सत्ताधारी दल को अपने कार्यकर्ताओं के बाजुओं पर भरोसा कम होने लगा हो इसलिए प्रशासनिक दक्षता का अनुभव लिया । कारण चाहे जो हों लेकिन ऐसे कदमों से जनता का भला ही हुआ है और उन लोगों को जिन्हें क्षेत्र में लंबे समय तक रहना है , उन्हें सोचने समझने का वक्त भी मिल गया । किसी का सिक्का तभी तक चलेगा जब तक बाजार में उसकी कीमत बनी रहेगी वरना खोटा सिक्का किसी काम का नहीं होता । चलन से बाहर हो जाता है ।
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